मनरूपी काग़ज़
कैसे काग़ज़ पर उतारू वो बात,
जिसे बयां न कर पाए मेरे जज्बात ।।
मिलते चले गए यू तो कई हज़रात,
न हो पायी तो बस विचारो से विचारो की मुलाकात।।
दिन बीतते गए, बीते कई रात,
जिंदगी लाई कभी खुशिया तो कभी गमो की बरसात।।
याद आती है तुम्हारी बातें और वो नटखट सवालात ,
जिस नये पन से हुई थी नये हौसले की शुरुआत ।।
क्या रिश्ता है हमारा?
पढ़ने वाले के मन मे उठे हज़ारो खयालात ।।
ये है मन रूपी काग़ज़ पर, मेरे कोमल शब्दो की सौगात
कैसे काग़ज़ पर उतारू वो बात,
जिसे बयां न कर पाए मेरे जज्बात।।
4 comments:
बहुत सुंदर
शुक्रिया जी
bahut khub .......
Thanks Bhakuni ji
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