सवालों का दायरा

सवालों का दायरा बढ़ सा गया, कविता में मेरी ....
शायद जवाब जानना हो गया, उतना ही जरुरी |
तेरे अंदर की अच्छाई को न जान सका कोई......
लेकिन बुराई को छाँट- छाँट कर सवांरने लगा हर कोई |
क्यों जुबां की मिठास को कमजोरी मान ली गयी ,
न लड़ - झगड़ने के स्वभाव को बेईमान मान ली गयी
आज इस दौर में ये क्या होता जा रहा .....
वो खुद अविश्वासी, विश्वास की बातें बता रहा |
इंसानियत , उसके ज़हन से उतरने लगी ...
मदद के नाम पर , स्वार्थी सूरत निखारने लगी |
ज़िंदगी इन सवालों में उलझ सी गयी ....
बिना जवाबों के ही ,ये कविता भी ख़त्म हुई ||
- Maira
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