पहली सी मोहब्बत
मुझ से पहली सी मोहब्बत, मेरे महबूब, न माँग .......
मैंने समझा था के तू है तो दरख़्शां है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगों हो जाए
यूँ न था, मैंने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
मुझ से पहली सी मोहब्बत, मेरे महबूब, न माँग.....
लौट जाती है इधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न, मग़र क्या कीजे . ...
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा..
मुझ से पहली सी मोहब्बत, मेरे महबूब, न माँग☂️☂️
@Faiz
2 comments:
Nice
Thanks
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