Manrupi kagaz




मनरूपी काग़ज़


कैसे काग़ज़ पर उतारू वो बात, 
जिसे बयां न कर पाए मेरे जज्बात ।। 

मिलते चले गए यू तो कई हज़रात, 
न हो पायी तो बस विचारो से विचारो की मुलाकात।। 

दिन बीतते गए, बीते कई रात, 
जिंदगी लाई कभी खुशिया तो कभी गमो की बरसात।। 

याद आती है तुम्हारी बातें और वो नटखट सवालात , 
जिस नये पन से हुई थी नये हौसले की शुरुआत ।। 

क्या रिश्ता है हमारा? 
पढ़ने वाले के मन मे उठे हज़ारो खयालात ।। 

ये है मन रूपी काग़ज़ पर, मेरे कोमल शब्दो की सौगात

कैसे काग़ज़ पर उतारू वो बात, 
जिसे बयां न कर पाए मेरे जज्बात।। 

मेरी रचना मेरी कल्पना 

Comments

Manish said…
बहुत सुंदर
Maira said…
शुक्रिया जी
Maira said…
Thanks Bhakuni ji

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